भारत ने दोहा में अमेरिका-तालिबान के बीच शांति समझौते में शामिल

 




भारत अब अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करने की तैयारी में है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, तालिबान के साथ पहली बार वार्ता की तरफ आगे बढ़ते हुए भारत ने दोहा में अमेरिका-तालिबान के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर प्रक्रिया के लिए अपना राजदूत भेजने का फैसला किया है.





 




यह पहली बार है जब भारत का कोई अधिकारी ऐसे समारोह में शामिल होगा जिसमें तालिबान प्रतिनिधि भी मौजूद होंगे. बता दें कि भारत ने 1996 से 2001 के दौरान पाकिस्तान के संरक्षण में फल-फूले तालिबान की सरकार को कभी भी कूटनीतिक और आधिकारिक मान्यता नहीं दी थी.


सूत्रों का कहना है कि भारत को कतर से निमंत्रण मिला है और उच्च स्तर पर विचार-विमर्श के बाद सरकार ने कतर में भारतीय राजदूत पी कुमारन को भेजने का फैसला किया है. हालांकि, यह फैसला अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे से जुड़ा नहीं है लेकिन इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद भारत पर इसके तमाम रणनीतिक, सुरक्षा और राजनीतिक प्रभाव होंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रंप के बीच द्विपक्षीय स्तर की बैठक में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई थी. दोनों देशों के साझा बयान में भी अफगानिस्तान का जिक्र हुआ था.






21 फरवरी को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा था कि अमेरिका और तालिबान 29 फरवरी को शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे जिससे अफगानिस्तान में कई दशकों से जारी हिंसा का अंत होगा.






भारत अफगानिस्तान में अन्य सक्रिय ताकतों रूस, ईरान, सऊदी अरब और चीन के साथ नियमित तौर पर बातचीत में शामिल रहा है. पिछले दो सालों से भारत अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते को लेकर हो रही बैठकों पर करीबी से नजर बनाए हुए हैं.






बता दें कि तालिबान शांति समझौते के तहत, एक समयसीमा के भीतर अफगानिस्तान में तैनात 14,000 अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाया जाएगा. बदले में, तालिबान आतंकवाद खत्म करने का वादा करेगा और अमेरिका  को आश्वस्त करेगा कि अफगानी मिट्टी से 9/11 जैसा हमला नहीं दोहराया जाएगा.






भारत ने हमेशा से अफगान सरकार नीत और अफगान नियंत्रित शांति प्रक्रिया का समर्थन किया है और इसमें पाकिस्तान की भूमिका को खारिज किया है. पाकिस्तान लंबे वक्त से तालिबान को संरक्षण प्रदान करता रहा है और उसका तालिबान पर अच्छा-खासा प्रभाव भी है. तालिबान पर अपने इसी प्रभाव का इस्तेमाल वह कश्मीर व अन्य मुद्दों पर अमेरिका को ब्लैकमेलिंग करने में भी करता रहा है.





हालांकि, इस पूरी शांति प्रक्रिया में अफगानिस्तान की सरकार को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया जिससे भारत अलग-थलग महसूस कर रहा था. अफगानिस्तान की अब्दुल गनी सरकार शांति समझौते का यह कहकर विरोध करती रही है कि इसमें अमेरिकी सेना के लौटने के बाद क्षेत्र में अस्थिरता रोकने के पर्याप्त कदम शामिल नहीं किए गए हैं. ट्रंप प्रशासन के भीतर भी तालिबान की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं. विश्लेषकों का ये डर भी है कि अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से लौटने के बाद वहां अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट अपने पैर जमा सकते